रविवार, मई 29, 2011

श्रद्धांजलि ; चन्द्रबली सिंह


श्रद्धांजलि ; चन्द्रबली सिंह
उनकी चिंता थी कि लेखक अब डरने लगे हैं
वीरेन्द्र जैन
गत 23 मई को सुप्रसिद्ध जनवादी आलोचक चन्द्रबली सिंह का वराणसी में निधन हो गया। वे 87 वर्ष के थे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक श्री सिंह लम्बे समय तक उसके महासचिव रहे। गत पैसठ वर्षों से वे हिन्दी आलोचना को दिशा देते रहे हैं। उन्हें हिन्दी आलोचना के दो प्रमुख स्तम्भ डा. राम विलास शर्मा और डा. नामवर सिंह का भी ज्ञानगुरु माना जाता है। पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, व्हिटमैन, और एमिली डिकंसन की कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने वाले डा. सिंह की आलोचना की दो पुस्तकें ‘आलोचना का जनपक्ष’, और ‘लोकदृष्टि और हिन्दी साहित्य’ बहुत चर्चा में रहीं। उनके सम्पादन में कविताओं के कई संकलन भी प्रकाशित हुये हैं।
लेखक संगठनों के बारे में उनके विचारों को आज से दो वर्ष पूर्व दिये गये उनके एक साक्षात्कार से समझा जा सकता है। प्रस्तुत हैं उनके साक्षात्कार के से लिए गये कुछ वाक्यांश-
'' लेखक संगठन जो काम कर रहे हैं, बहुत संतोषजनक तो नहीं है,उनका अस्‍ति‍त्‍व औपचारि‍क हो गया है। ''
[हिन्दी के तीन बड़े लेखक संगठनों की समंवित कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में]
'' कुछ को ऑर्डि‍नेशन राजनीति‍क तौर पर हुआ है, पर उनकी राजनीति‍ से जुड़े जो सांस्‍कृति‍क संगठन हैं उनमें कोई समन्‍वय नहीं हुआ है। जहॉं तक कि‍ साहि‍त्‍यि‍क मतभेदों का सवाल है वह तो हर बौद्धि‍क संगठन में होना चाहि‍ए।... लेखकों का संगठन राजनैति‍क संगठन की तर्ज पर नहीं चल सकता।''
'' राजनैति‍क पार्टी में तो डेमोक्रेटि‍क सेन्‍ट्रलि‍ज्‍म के नाम पर जो तय हो गया, वह हो गया। पर लेखक संगठनों में तो यह नहीं हो सकता कि‍ फतवा दे दें कि‍ जो ऊपर तय हो गया तो हो गया। दि‍क्‍कत तो है। सम्‍प्रति‍ कोई ऐसी संस्‍था नहीं है कि‍ समन्‍वय की ओर बढ़ सके। हम तो यह महसूस करते हैं कि‍ इन संगठनों में जो नेतृत्‍व है उस नेतृत्‍व को भी जो वि‍चार-वि‍मर्श करना चाहि‍ए, वह नहीं करता है। पार्टी को इतनी फुर्सत नहीं है कि‍ इन समस्‍याओं की ओर ध्‍यान दें।“
'' मैंने समन्‍वय समि‍ति‍ का, नामवर ने जो प्रस्‍ताव रखा था कि‍ यदि‍ एक न हों तो समन्‍वय समि‍ति‍ हो जाए। पार्टियॉं जो हैं उनमें तो समन्‍वय समि‍ति‍ बनी ही है‍। पर लेखक संगठन व्‍यवहार में यह स्‍वीकार नहीं करते हैं कि‍ वे पार्टियों से जुडे हैं। समन्‍वय की प्रक्रि‍या शुरू करने के लि‍ए जब तक दबाव नहीं बनाया जाएगा तब तक यह सम्‍भव नहीं है। बि‍ना दबाव के यह हो नहीं पाएगा।''
'' ऐसा लगता नहीं है कि‍ जैसी पहले मोर्चाबंदी हुई थी एक जमाने में, वैसी अब होती हो। वैसी अब दि‍खाई नहीं देती।वैसा वैचारि‍क संघर्ष दि‍खाई नहीं देता। गड्ड-मड्ड की स्‍थि‍ति‍ है। खास तौर से जो पत्र- पत्रि‍काएँ नि‍कलती हैं उनमें उस तरह की स्‍पष्‍टता और मोर्चाबंदी नजर नहीं आती। कभी -कभी ऐसा लगता है कि‍ लेखक मंच पर भी व्‍यक्‍ति‍यों के साथ आता है। उसके सारे गुण और दोष इन संगठनों में वह ग्रहण करता है।
“लीडरशि‍प के नाम पर लेखकों में एक सैक्‍टेरि‍यन दृष्‍टि‍कोण पनपता है।पतनशील प्रवृत्‍ति‍यों से कोई संघर्ष नहीं है। ये प्रवृत्‍ति‍यॉं मौजूद रहती हैं।''
'' मैं तो यहाँ जलेस से कहता हूँ‍, जि‍समें ज्‍यादातर कवि‍ ही हैं। वे कवि‍ता सुना जाते हैं। उनसे कहता हूँ कि‍ अपनी कवि‍ताऍं, जनता के बीच में जाओ, उन्‍हें सुनाओ।फि‍र देखो क्‍या प्रति‍क्रि‍या होती है। जनता समझती है या नहीं। पाब्‍लो नेरूदा जैसा कवि‍ जनता के बीच जाकर कवि‍ता सुनाता था। जनता को उसकी कवि‍ताऍं याद हैं। जनता को जि‍तना मूर्ख हम समझते हैं वह उतनी मूर्ख नहीं है। यदि‍ वह तुलसी और कबीर को समझ सकती है तो तुम्‍हें भी तो समझ सकती है। बशर्ते उसकी भाषा में भावों को व्‍यक्‍त कि‍या जाए।''
'' कहते तो हैं अपने को प्रगति‍शील और जनवादी पर कहीं न कहीं कलावादि‍यों का प्रभाव उन पर है। आज के शीर्षस्‍थ जो आलोचक हैं, नामवरसिंह, उनके जो प्रति‍मान हैं, वे सारे प्रति‍मान लेते हैं, वि‍जयनारायण देव साही से।''
'' लेखक अब डर गए हैं।''

लेखकों के भय के कारणों को समझना और उनके भय को निकालने की कोशिश ही चन्द्रबली सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

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